Saturday 11 October 2014

सिनेमा के साथ सपने

सपने देखना कुछ और होने का साथ(यानि कि फ्रायड के अलावा) आदमी की यादों और चाहतों का एक अव्यय संकलन भी है। और इसीलिए सपने बहुत हद तक सिनेमा का तत्वमीमांसीय(दिमाग पे न लें) आधार बनाते हैं( हम सब जानते हैं कि ज्ञान से ज्यादा तत्व जरूरी है औऱ तत्व न मिले तो द्रव्य से काम चल जायेगा, खुद ही देख लीजिए फिल्म जैसे ही पर्दे पर आती है उसके बारे में हम क्या पढ़ते- सुनते हैं 100 करोड़, नहीं!)। तो इस बात का कि सपनों का सिनेमा से क्या रिश्ता है किसी से क्या लेना-देना। खैर मुझे भी लगता है कि यह एक बकवास है। और बकवास करने-सुनने में हमें मजा आता है। वैसे तो हम हिंदी वालो के लिए बकवास ही बेहतर है। हमारी फिल्में बकवास। हमारे अभिनेता तो खैर..। तो हमारे यहां सिनेमा हमारे सपनों का प्रतिबिम्ब मात्र है। नहीं? अच्छा। एक फिल्म, हिन्दी फिल्म आयी थी। जिसमें ग्रेट इंडियन सरकस नाम के एक सरकस का मालिक एक चोर, नहीं, बड़ा चोर होता है। अब जरा रुकिए ज़नाब। सरकस!! चोर!! क्या बकवास है अब और क्या कहूं। औसत भारतीय गुस्से में है वह दिन रात फूटबाल खेलने के सपने देखता है(अब यह मत कहिए कि गुस्से का फूटबाल से कोई रिश्ता नहीं है)। नहीं, सच में। ‘ किक’, गुन्डे, बैंग-बैंग, कुछ भी देखिए यहां तक कि सिंघम वाले को देखिए। हां! संवाद भी ऐसे ही। खाप पंचायत वाले राज्य में एक मासूम लड़की(जरा सिनेमा से हट के भी देखिए) को जो सपना आयेगा, वो तो यही बोलेगी न- थप्पड़ से डर नहीं लगता साब प्यार से लगता है। हद है। भारतीयों में उद्दमशीलता को देखिए(सिनेमा की ही बात कर रहां हूं)। किस्मत खराब चलो किसी को लूट लेते हैं। कोई धंधा-पानी कर लो। हर आदमी यही सपना देख रहा है। हद है न। अभी बहुत कुछ है लेकिन ज़रा ठहरिये थोड़े-बहुत सपने(या सिनेमा) देख कर आते हैं तब।

Monday 10 December 2012

कविता

मैं अपने भीतर-भीतर



कितना बहका  कितना संभला
मैं तार-बेतार चला बदला
जग बाहर-बाहर उखड़ा था
मैं भीतर-भीतर टूट गया
कुछ मुस्काये कुछ रूठ गये
कुछ ताने मुझ पर छूट गये
और मूढ़ मति मैं बंजारा
ठहरा-ठहरा ही जा भटका
जब दोष मेरा सब जान गये
मुट्ठी बांधे मैं खड़ा रहा
सबने बढ़कर बस थाम लिया
मुझे मेरे भीतर मार दिया
  

                       पंकज मिश्रा

Saturday 24 November 2012

थोड़ा रुक के जाना...


कितनी बार ढ़ली हैं शामें                                                                                                   
पत्ते-पत्ते से रिस कर                                                                        
तुमने झुक कर लेकर मिट्टी                                                                               
छेड़ दिया है धरती पर                                                                        
और अब गंध भरी जाती है                                                                                
पसराती सी आंगन में
एक ढलान सी फिसलन जैसे
सरक गई है जीवन में
जब धीरे से एंड़ी अपनी
तुमने मुड़कर सरकाई
धूसरित होकरबेवश होकर
रात बेचारी घिर आई
अब उन्माद बचा भी हो तो
कैसे उसको तार करें
शाम -ढ़ले की जल्दी से
हम किसका उद्धार करें
तुम इतना कुछ कर देती हो
मेरी कविता में आकर
थोड़ा तो कुछ बदलेगा ही
इससे बाहर भी जाकर
बाहर जाकर क्या करना है
इतना मैने कब जाना
मैं तो बस इतना कहता हूँ
तुम थोड़ा रूक के जाना
                                पंकज मिश्रा

वैयक्तिक सामाजिकता



 लोगों के पास बहुत कुछ है कहने के लिए, सोचने के लिए, दुखी होने के लिए, खुश भी होने के लिए, अपने-आप को उलझाए रखने के लिए या दूसरों से उलझने के लिए। कोई कहीं लड़ता है, कोई कहीं मरता है... लोग चर्चा करते हैं.. बोलते हैं... चिल्लाते हैं। और इसके लिए जगहों की कमी नहीं है.. मतलब मंच.. मंच की कमी नहीं है। माहौल भी पर्याप्त रूप से अनुकूल है। विषय की उपलब्धता भी है और उस तक पहुँच भी। ठीक ही तो है। इससे अच्छी बात और क्या होगी.. साफ दिखता है कि लोग तैयार हैं। जब लोग हर बात पर अपनी राय देने लगें तो समझना चाहिए कि वे तैयार हैं। दुनिया बदलने के लिए। या बदलने की कोशिश करने के लिए.. या सिर्फ कोशिश करने के लिए। मतलब लोग तैयार हैं। इससे ज्यादा और क्या चाहिए आदमी को..। आधुनिकता, एकाकीपन, तनाव जैसे कुछ भारी-भरकम शब्दों की जान तो बस किताबों में ही है... बाहर तो मुझे संदेह है। बल्कि लोग तो अधिकाधिक सामाजिक हुए हैं और होते जा रहे हैं। रोक सको तो रोक लो वाले अंदाज में आगे बढ़ रहे हैं। कर लो दुनिया मुट्ठी में इनका मुहावरा बन चुका है।

    कहने का अर्थ ये है कि लोगों के बीच संवाद की कमी नहीं है। और सबको पता है कि संवाद से संबंध बनता है और संबंध से समाज। संवाद?  …। इस व्यस्तता भरी और भाग-दौड़ वाली जिंदगी में संवाद। ऐसे कैसे..। लेकिन यही वो बात है जो मेरी इस पूरी बकवास में सबसे मार्मिक है। संवाद। हाँ..। एक कहावत है न मैं साँस लेता हूँ तेरी खुशबू आती है, वैसा ही कुछ। हवाओं में है संवाद। इसे कुलीन भाषा में आन एयरकहा जाता है। किसी ने इसको वरचुअल भी कहा है। विश्वास करिये दोनो अलग नहीं हैं। लोगों ने संवादहीनता की स्थिति को आगे बढ़कर नकार दिया है। अब लोग उस पत्रों के जमाने वाले कागज में लिपटी बनावटी भावुकता से ऊब चुके हैं। रिंग रिंग रिंगा ही अब इनकी सच्चाई है और तत्कालिकता इनका सिद्धान्त। इसके लिए विषय की कमी की चुनौती को शायद किसी सूचना क्रान्ति ने पहले ही खत्म कर दिया था।.....  आखिरकार मैने लाख तर्क देकर ये तो सिद्ध कर ही दिया कि लोगों के बीच संवाद है। तो आगे बढ़ें ?

चुकि संवाद से हमलोग आगे बढ़ चुके हैं तो अब समाज की बात करनी ही पड़ेगी। समाज भी स्थापित ह्आ है, एकदम नयी तरह का। हवाई समाज। आप अगर कहना चाहते हैं तो कह सकते हैं वरचुअल सोसायटी इस नये समाज की विशेषता है वैयक्तिक सामाजिकता। इसका अर्थ ये है कि इस सामाजिकता में किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कोई असर नहीं पड़ता। और भी बहुत कुछ पर यहां इसके लिए जगह नहीं है(जैसाकि प्राय: महान लेखक करते हैं)। काल्पनिकता और आक्रामकता इसकी अन्य विशेषतायें हैं। यहां काल्पनिकता मध्ययुगीन अर्थों में नहीं, बल्कि शुद्ध इक्किसवीं सदी के संदर्भों में लिखी गई है, तो यह घोड़े पर सवार होकर नहीं आधुनिक तकनीक पर सवार होकर चलती है। आक्रामकता तो किसी भी नयी-नयी स्थापित चीज के आवश्यक है ही। इससे पहले से उपस्थित चीजों को हटाने में सरलता होती है।

तो... लोग सामाजिक हुए हैं और उनके पास गति भी है और आक्रामकता भी। अब इसीके सहारे ये लोग अपनी नियती को पा लें तो क्या आश्चर्य। भले ही लोग ये कभी न सोचें कि ये आदम जात जा कहां रहा है। इसकी चिंता भी क्यों.. आखिर सुदूर भविष्य में देखता भी कौन है। वैसे भी कहीं न कहीं तो ये पहुंचेंगे ही। सब पहुंचते हैं। इसमें जो बाधक बन सकता है वो है ठहराव। थोड़ी देर का ठहरना सोच के प्रेरित करता है। और यह खतरनाक है। लेकिन.. मुझे तो लगता है कि इससे भी इन्हें कोइ असर नहीं पड़ेगा। इस सदी के लोग तो इतने अधिक सामाजिक हैं कि एक क्षण ठहर कर खुद के बारे में नहीं सोचते, तो ये पूरी आदम जात के लिए कैसे सोचेंगे। मैं तो निश्चिंत हूं। ऐसा कोई भी खतरा किसी निकट भविष्य में दिखता नहीं। कोई भी ठहराव इनके सोच को प्रेरित करेगा ऐसा लगता नहीं।

है न हार्दिक खुशी का बात। तो फिर चला जाय। माहौल थोड़ा गरम है। कल ही किसी को फाँसी पर चढ़ाया गया है। अब इसपे बहुत सारी बातें होंगी। लोग कितना कुछ कहेंगे.. क्या-क्या बोलेंगे। इसके बहुत सारे तकनीकी पहलुओं पर भी चर्चा होगी ही। कुछ ऐसी बातें होंगी जो पहले से चली आ रहीं हैं पर अभी ठंडी हो गयी हैं। याद है न अभी कुछ ही दिन पहले जब शायद कोई टाईगर मरा था, तब लोगों की ये सामाजिकता कितनी वाचाल हो उठी थी।.....